रविवार, 25 अक्तूबर 2015

विश्व गजलकार परिचय शृंखला-3

आजुक परिचयमे छथि संजय कुमार कुंदनजी। हिनक परिचय एना अछि--



जन्म-- 7 जनवरी 1955, फॉरबिसगंज (अररिया)
प्रकाशित  काव्य संग्रह-- 'बेचैनियाँ' (2002),'एक लड़का मिलने आता है'(2006), 'तुम्हें क्या बेक़रारी है' (2014), 'भले तुम और भी नाराज़ हो जाओ'(प्रकाश्य).
गजल आ नज्म संग कहानी लेखन सेहो।
संपर्क- द्वारा श्री आर.एन.ठाकुर, शर्मा लॉज के पहले,मोहनपुर ,पुनाईचक, पटना-23(बिहार)
मो. 09835660910

हिनक दू टा गजल पढ़ल जाए--
1

मेरी लुग़त का शायद इक लफ़्ज़ हो ज़िन्दा-सा
दुनिया  से  तेरी  गुज़रा  सो   एक  तमाशा-सा

सदियों का सफ़र कोई  जारी था  मेरे  अन्दर
और   देखनेवालों  ने  देखा   मुझे    बैठा-सा

देखो  न  हिक़ारत  से   हमलोग भी इन्सां  हैं
हाँ , तन पे नहीं रेशम , हाँ , रंग  है  उतरा-सा

वो  लोग  भी  कैसे  थे  देखा  हो मुहब्बत को
लगता है  कहानी-सी , लगता है  फ़साना-सा

वो  लौट के  आएगा  , क्या  लौट के  आएगा
लौटे हुए  क़दमों  की  आहट  के  भरोसा-सा

वैसे  तो  मुलाक़ातें  अब  भी  हैं  हुआ करती
लेकिन  है कहाँ अब  वो  अन्दाज़  पुराना-सा

'कुन्दन'  को  कहीं  देखा ?  पहचानना  आसाँ  है
कुछ-कुछ वो लगे सुलझा,कुछ-कुछ वो दीवाना-सा

2

देखकर चार सू  उठता है  यही एक  सवाल
कब तलक करनी है बर्दाश्त यही सूरते-हाल

एक ग़ुलामाना ज़हन  उसपे हुकूमत से मरूब
कैसे समझोगे तुम आज़ाद तबीयत का मलाल

रहबरे-मुल्क  के पाँओ  तले  सर  है  अपना
हम रियाया हैं के रखना है हमें  उसका ख़याल

बात फैलाई है  ताजिर  की  सियासत ने  यही
पेट की भूख से बढ़कर हैं मज़ाहिब के  सवाल

इक न  इक  सामरी होता  है  यहाँ  तख़्तनशीं
चश्मे-मज़लूम  पे बुनता है तिलिस्मों के जाल

बात से भर न सकेगा ये  रियाया  का शिकम
हाकिमे-शह्र, ज़रा एक भी रोटी  तो  निकाल

इक ज़रा आज ज़ुबाँ मेरी खुल गई  "कुन्दन"
ज़र्द होते हुए चेहरे की ये रंगत  तो  सँभाल



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