बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

गजल

गजल
मतलब के सब संगी मतलबी छै लोक
कियो मनाबै छै ख़ुशी कियो मनाबै छै शोक

स्वार्थक वशीभूत दुनिया की जाने ओ प्रेम
प्रेम पथ पर किएक कांट बोए छै लोक

सभक मोन में भरल छै घृणाक जहर
दोसर के सताबै में तृष्णा मेटाबै छै लोक

ललाट शोभित चानन गला पहिर माला
भीतर भीतर किएक गला कटै छै लोक

सधुवा मनुखक जीवन भगेल बेहाल
कदम कदम पर जाल बुनैत छै लोक

अप्पन ख़ुशी में ओतेक ख़ुशी कहाँ होए छै
जतेक आनक दुःख में ख़ुशी होए छै लोक

अप्पन दुःख में ओतेक दुखी कहाँ होए छै
जतेक आनक ख़ुशी में दुखी होए छै लोक

अप्पन चिंतन मनन कियो नहि करेय
आनक कुचिष्टा में जीवन बिताबै छै लोक

विचित्र श्रृष्टिक विचित्र पात्र छै सब लोक
"प्रभात" के किएक कुदृष्टि सं देखै छै लोक
.....................वर्ण:-१६ ................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

गजल

कहलन्हि ओ मंदीरमे  नहि पीबू एतए शराब
कोनठाम ओ नहि छथि कहु पीबू ततए शराब

ई  नहि अछि खराप बदनाम एकरा केने अछि
ओ की बुझत भेटलै नहि जेकरा कतए शराब

मरलाबादो हम नहि पियासल जाएब स्वर्गमे
जाएब जतए सदिखन भेटए ओतए शराब

मारा-मारि भऽ रहल अछि जाति पातिकेँ नामपर
मेल देखक हुए तँ  देखू  भेटए जतए शराब

सभ गोटेकेँ निमंत्रण ससिनेह मनुदैत अछि
आबै जाए जाउ सभमिल पीब बहुतए शराब

(सरल वार्णिक वर्ण, वर्ण-१९)

@ जगदानन्द झा ‘मनु’

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

गजल

टूटल करेज राखब नहि हम एखन सिखने छी 
किछु अपने तोरलहुँ  किछु भागे एहन  रखने छी  


जिनका लुटेलहुँ हम अपन स्नेह भरल करेज 
हुनका सँ दूर होबाक, माहुर अपने सँ चीखने छी 


सोचने त ' छलहुँ एक दिन जीवन में होयत रंग 
ओहि रंग भरल दुनियाँ सँ कतेक दूर एखने छी 


दोसर सँ करू की शिकाति जँ अपने नहि बुझलक
जिनका केलौं नेह करेज तोरैत हुनका देखने छी 


(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-२०)
जगदानन्द झा 'मनु'  : गजल संख्या-२
३ 

गजल


कहैए राति सुनि लिअ सजन, आइ अहाँ तँ जेबाक जिद जूनि करू।
इ दुनियाक डर फन्दा बनल, इ बहाना बनेबाक जिद जूनि करू।

अहाँ बिन सून पडल भवन बलम, रूसल किया हमरा सँ हमर मदन,
अहाँ नै यौ मुरूत बनि कऽ रहू, हमरा हरेबाक जिद जूनि करू।

इ चानक पसरल इजोत नस-नस मे ढुकल, मोनक नेह छै जागल,
सिनेह सँ सींचल हमर नयन कहल, अहाँ कनेबाक जिद जूनि करू।

अहाँ प्रेम हमर जुग-जुग सँ बनल, हम खोलि कहब अहाँ सँ कहिया धरि,
अहाँ संकेत बूझू, सदिखन इ गप केँ कहेबाक जिद जूनि करू।

कहै छै मोन "ओम"क पाँति भरल प्रेम सँ, सुनि अहाँ चुप किया छी,
इ नोत कते हम पठैब, उनटा गंगा बहेबाक जिद जूनि करू।
(बहरे-हजज)

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

गजल

बिन हुनका देखने मोन ने मानए ,
जँ देख ली त' ककरो होश ने आनए ,
सबसँ बड़का नशेरी पकैड़ लाऊ ,
ऊहो हारत जँ दारू नैन सँ छानए ,
पियर सरसोँ फुलक हँसी लोभाबै ,
हिनक मीस्की सँ बाधो मस्त भ' फानए ,
डाँरक लचकी ,चाल सुनू अल्हर छै .
रूप सँ छिटकल इजोर चान आनए ,
जँ खोलि देती माँथ परक उपवन ,
बर्षो एहि ठाँ बसबाक लेल ठानए ,
सच कही त' उच्च ताप पर तपल
अनमोल सोना .जे सब चाहै किनए ,
जुल्मी जमाना जोर द' जारलक प्रेम ,
ओ नै बहराइ छथि "अमित" कानए . . । ।
अमित मिश्र

गजल

पुन: जोडि लेबै नेहकेँ डोर राजा जी
कनेको बहै नै जानकेँ नोर राजा जी

कने आउ राजा जानि नै की भ' जेतै यौ
कनेको नचाबू प्रेमकेँ मोर राजा जी

किए सुन्न भेलौं आइ बेमौत मारै छी
ने आइ मस्तीमे करू शोर राजा जी

जमाना मिलेतै नै सुनू बैलगा देतै
अनाड़ी बुझै छै प्रेम छै चोर राजा जी

चटा देब संगे प्यार के चाशनी हमरा
अमीतो बुझू भेलै सराबोर राजा जी
हरेक पाँतिमे "फऊलुन-मफाईलुन" केँ दू बेर प्रयोग मने फऊलुन-मफाईलुन-फऊलुन-मफाईलुन अर्थात UII-UIII-UII-UIII सँ बनल बहरे तवील।
अमितो केर वज्न गायनमे बढि " अमीतो" होइत छै।
तेसर शेरक पहिल पाँतिमे "प्रथा" शब्दमे "प्र" संयुक्त अछि आ तँए ओहि शब्दसँ पहिने बला शब्द "कोन" केर "न" लघु रहितो दीर्घ मानल जाएत।

गजल

गोर गाल पातर ठोर छै
कारी नैन मारै ईजोर छै

बाट छैक सोझगर मुदा
लहरिया चालि बेजोर छै

कुमुदिनी फुलायल फेर
उठु भ गेल आब भोर छै

दीप प्रकाश भेल विहीन
लोक लाजे मोन मे चोर छै

देख मिलन भेल सार्थक
प्रीते करेज सराबोर छै

गजल

गोर गाल पातर ठोर छै ,
नैन कारी बड़ बेजोर छै ,
नाक ,कान ,डाँर केश नीक ,
यौवन झरनाक शोर छै ,
गुलाब कही त= बड़ कम ,
दोसर ठामक इजोर छै ,
विरह जँ अन्हरिया छै त= ,
इ प्रेमक मधुर भोर छै ,
जीवन जँ नरक भेलै त= ,
स्वर्ग नगर कए डोर छै ,
मोन मोहै छै मशीन आइ ,
मुदा इ पैघ चितचोर छै ,
होली मे रंगक मेल जेकाँ ,
सब सँ मिलबाक होर छै ,
चिख हिनक प्रेमक स्वाद ,
"अमित" त= भेल विभोर छै . . . । ।
अमित मिश्र

गजल


हरियाली देख हरियर मोन भ' जाइ यै ,
बंजर धरा देख बज्जर मोन भ' जाइ यै ,
जँ आमक गाछी मे एक्को मिनट बिताएब ,
मिठ पवन सँ मिठगर मोन भ' जाइ यै ,
जँ खेत मे देखै छी झुमैत गहूँमक बालि ,
सरसोँ फुल सँ रसगर मोन भ' जाइ यै ,
घरक आगू गुलाबक उपवन सजेलौँ ,
आब एत्तै करब गुजर मोन भ' जाइ यै ,
लोभी लोक लाजो नै करै छथि गाछ काटि क' ,
देख क' "अमित" गड़बड़ मोन भ' जाइ यै . . . । ।
अमित मिश्र

गजल

आइ एला पिया घर लए कंगना दाइ गै ,
सून जे भेल छल बैसकी अंगना दाइ गै ,
नीन नै होइ यै यादि ओ आबि गेला जखन
आइ एला पिया ,काज केने मना* दाइ गै ,
आलु कोबी कए राख भेलै भुजीया सखी ,
जानलौँ आबि गेला पुरा* पहुना दाइ गै ,
बाजलै पायलो दोगलौ ओलती मे नुका ,
लाज लागै छलै होयते सामना दाइ गै ,
नीक साड़ी चुनर आ बुटीदार चोली छलै ,
भेल लाले आँगी , प्रेम भेलै घना दाई गै. . . । ।
हमरा हिसाब सँ इ बहरे-मुतदारिक {I-U-I पाँच बेर सब पाति मे} मे अछि ।
* काज केने मना कए मतलब छल जे जाही ठाम पिया काज करै छलाह ओही ठाम सँ काज -धाज छोडि क चलि एलाह
* पुरा{जगह कए नाम}

अमित मिश्र

.गजल

राति मे हुनकर इयादि आबैए बेसी .
राति मे बाट जोहैत आँखि जागैए बेसी ,
कतबो प्रकृतिक कोरा मे रहब मुदा ,
खण्डहर सिनेहक नीक लागैए बेसी ,
माँ कए चिन्ता जेना संतान लेल होइ छै .
खून नै रग-रग सँ चिन्ता दौगैए बेसी ,
गामक टुटल टाट दोग सँ देखैत ओ ,
पहिलुक मिलनक बात दागैए बेसी ,
कोना-कोना कोहबर सँ कलकत्ता एलौँ ,
रूकबो नै करै फिल्म जेकाँ भागैए बेसी ,
विरहक वेदना झुलसा देलक आत्मा ,
घुरो सँ "अमित" करेज सुनगैए बेसी . . . । ।
अमित मिश्र

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

गजल

खुश रहय के लेल अहांके हजार बहाना अछि ,
कलि स दोस्ती अहांके गुल स अहंक याराना अछि ,,

हमर ख़्वाब तू आसमान स उंच भ जो ,
हमरो आय अपन हौसला कनी आजमायक अछि ,,

साकी तू बस पियेने जो वजह नय पूछ पीये के ,
सबहक दर्द अपन अपन सबहक अपन अफसाना अछि ,,

एक चूक भेल की तोहर ऩजइर स उतैर गेलौ ,
ऐना छौ तोहर आएंख की अदब के पेमाना अछि ,,

ख़ामोशी तन्हाई नाकामी रुसवाई ,
'निशांत ' भेटलौ तोरा मोहबत के नजराना अछि ,,,,

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

गजल


हमर मुस्कीक तर झाँपल करेजक दर्द देखलक नहि इ जमाना।
सिनेहक चोट मारूक छल पीडा जकर बूझलक नहि इ जमाना।

हमर हालत पर कहाँ नोर खसबैक फुरसति ककरो रहल कखनो,
कहैत रहल अहाँ छी बेसम्हार, मुदा सम्हारलक नहि इ जमाना।

करैत रहल उघार प्रेमक इ दर्द भरल करेज हमरा सगरो,
हमर घावक तँ चुटकी लैत रहल, कखनहुँ झाँपलक नहि इ जमाना।

मरूभूमि दुनिया लागैत रहल, सिनेहक बिला गेल धार कतौ,
करेज तँ माँगलक दू ठोप टा प्रेमक, किछ सुनलक नहि इ जमाना।

कियो "ओम"क सिनेहक बूझतै कहियो सनेस पता कहाँ इ चलै,
करेजक हमर टुकडी छींटल, मुदा देखि जोडलक नहि इ जमाना।
(बहरे-हजज)

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

गजल



एसगर कान्ह पर जुआ उठौने,कतेक दिन हम बहु
दर्द सं भरल कथा जीवनके,ककरा सं कोना हम कहू

अपने सुख आन्हर जग,के सुनत हमर मोनक बात
कहला विनु रहलो नै जाइय,कोना चुपी साधी हम रहू

अप्पन बनल सेहो कसाई,जगमे भाई बाप नहीं माए
सभ कें चाही वस् हमर कमाई,दुःख ककरा हम कहू

देह सुईख कS भेल पलाश,भगेल हह्रैत मोन निरास
बुझल नै ककरो स्वार्थक पिआस,कतेक दुःख हम सहु

मोन होइए पञ्चतत्व देह त्यागी,हमहू भS जाए विदेह
विदेहक मंथन सेहो होएत,कोना चुपी साधी हम रहू

नैन कियो करेज,कियो अधिकार जमाएत किडनी पर
होएत किडनीक मोलजोल, सेहो दुःख ककरा हम कहू

बेच देत हमर अंग अंग, रहत सभ मस्ती में मतंग
बजत मृदंग जरत शव चितंग सेहो कोना हम कहू


.........................वर्ण:-२२.............................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल---



भेटलै सरकारी नौकरी जिनगी नेहाल भ' गेलै
प्रूफ पढ़ि संपादक कहेबा लेल बेहाल भ' गेलै

रंगकर्म केर ज्ञानक बिन पिटए डंका सगरो
मैथिली रंगकर्म क्षेत्रक ओ बुझू दलाल भ' गेलै

मारि अंघोरिया तकै प्रायोजक खरचा-पानि लेल
मैथिली केर नाम बेचि बुझू जे मालो-माल भ' गेलै

रंगोत्सवमे लागै सर्वभाषा रंगमंचनक भीड़
देखू जे अपन भाषाक नाटकक अकाल भ' गेलै

आखर---19

गजल

करेज में जनमल घाव त जडियेबे करै छै
भिजल रूइया कए बोझहा भरियेबे करै छै ,
जीवन दुखक सागर अछि सब केउ जानै छी ,
हिम्मत राखू त' सुख फेर सँ सरियेबे करै छै ,
क' लिअ कतबो झुठक खेती ,बेइमानी , डकैती ,
भगवान घर मे त' हिसाब फरियेबे करै छै ,
अनकर कन्हा पर बंदुक राखि चलाबै सब ,
केउ नीक बात नै कहै ,सब गरियेबे करै छै ,
बाप-दादा कए इज्जत निलाम जुनी करै जाउ ,
सदिखन बदनाम लोक त' धुरियेबे करै छै ,
जहिना गजल नीक लिखबाक कोशिश रहै छै ,
"अमित" विद्वान लोक समाज ओरियेबे करै छै . . . । ।
अमित मिश्र

गजल

आब त' राति बिताएब भेल कठिन ,
वर्षा मे वस्त्र सुखाएब भेल कठिन ,
दिन त' भीड़ मे हसैत बित जाइ छै ,
राति क' दर्द नुकाएब भेल कठिन .
सब ठाम चोरी-डकैती जोर धेने छै ,
प्रेमक धन बचाएब भेल कठिन ,
यार सब छलैए त' ताश खेलै छलौँ ,
पहिला यादि मिटाएब भेल कठिन ,
माँ-बाबू ,कनियाँ .बच्चा.भाएक चिन्ता छै
आब सब लेल खाएब भेल कठिन ,
अनचिन्हार चिन्हार सब छितरा गेल ,
संबंधक पुल बनाएब भेल कठिन ,
धधैक रहल पानि मे धधरा देखू ,
"अमित" आगि मिझाएब भेल कठिन . . . । ।
अमित मिश्र

गजल

आइ नोर सँ आँखि बोरि रहल छी ,
ककरो दिश मोन मोड़ि रहल छी ,
तेज श्वासक कोदारि सँ आइ हम ,
यादिक सक्कत मेटि कोरि रहल छी ,
तरेगणक बीच बैसल चान सँ ,
पहिले जेकाँ डोर जोड़ि रहल छी ,
अन्हारक बीच कुकुरक आवाज सँ ,
रहि-रहि क' ध्यान तोड़ि रहल छी ,
कत्तौ- कत्तौ जुगनू चमकी उठै छै ,
नै एला प्रिय ,आश छोड़ि रहल छी ,
राति जुआन बुढ़ सब भेलै देखू ,
ओ औता ,विश्वास नै छोड़ि रहल छी ,
आइ नै त' काल्हि जरूर औता प्रिय ,
यैह सोचि ओछेना छोड़ि रहल छी . . . । ।
अमित मिश्र

गजल

आँचर तर मरबाक मजा किछ और छै .
संग प्रेम मे भिजबाक मजा किछ और छै .
सुतल मे त श्वप्नपरी बड यादि आबै छै ,
जागल  श्वप्न देखबाक मजा किछ और छै ,
गीत-संगीत त ताले सँ बान्हल रहै छैक ,
बीन ताल के नचबाक मजा किछ और छै ,
गणित , ,विज्ञान,हिन्दी भुगोल बड सिखलौ ,
प्रेमक पाठ पढ़बाक मजा किछ और छै .
फुल भरल बाट पर कतबो चलु अहाँ ,
कांट पर में चलबाक मजा किछ और छै ,
जमाना तेज छै क्षण में पहुंचू सब ठाम ,
इंतजार में रहबाक मजा किछ और छै ,
अनचिन्हार देलनि पांति बनल गजल ,
"अमित' ,संग लिखबाक मजा किछ और छै ...||
अमित मिश्र

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

रूबाइ


कोना कऽ रंगलक करेज केँ इ रंगरेज, रंग छूटै नै।
नैन पियासल छोडि गेल, मुदा आस मिलनक टूटै नै।
हमरा छोडि तडपैत पिया अपने जा बसला मोरंग,
बूझथि विरहक नै मोल, भाग्य इ ककरो एना फूटै नै।

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

गजल


कतौ बैसार मे जँ अहाँक बात चलल।
तँ हमर करेज मे ठंढा बसात चलल।

विरह देख हमर झरल पात सब गाछ सँ,
सनेस प्रेमक लऽ गाछक इ पात चलल।

मदन-मुस्की सँ भरल अहाँक अछि चितवन,
करेजक दुखक भारी बोझ कात चलल।

बुझाबी मोन केँ कतबो, इ नै मानै,
अहीं लेल सब आइ धरि शह-मात चलल।

छल घर हमर इजोत सँ भरल जे सदिखन,
जखन गेलौं अहाँ, "ओम"क परात चलल।
(बहरे हजज)

गजल


किछ हमर मोन आइ बस कहऽ चाहै ए।
अहींक बनि कऽ सदिखन तँ इ रहऽ चाहै ए।

इ लाली ठोरक तँ अछि जानलेवा यै,
अछि इ धार रसगर, संग बहऽ चाहै ए।

अहाँ काजर लगा कऽ अन्हार केने छी,
बरखत सिनेह घन कखन दहऽ चाहै ए।

अहाँ फेंकू नहि इ मारूक सन मुस्की,
बिना मोल हमर करेज ढहऽ चाहै ए।

बिन अहाँ "ओम"क सुखो छै दुख बरोबरि,
सब दुख अहाँक इ करेज सहऽ चाहै ए।
(बहरे-हजज)

रुबाइ

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक रुबाइ---



कसमकस सन जिनगी जीब कतेक दिन
इ कहू खूनक घोंट पीब कतेक दिन
भाइ जँ जीबाके अछि तँ जीबू एना
देखू जेना जिबै छै माछ पानिक बिन

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

गजल

केहन-केहन दुनियाँ, केहन-केहन रंग एकर
कियो हँसैए कियो कनैए,कियो झुमैए संग एकर

कियो मरैए दुधक द्वारे,कियो भाँग में डुबल अछि
बुझि नहि पएलहुँ आइतक कनिको ढंग एकर

लक्ष्मीके देखलौं पथैत चिपड़ी,कुबेड चराबे पारी
गंगा-यमुना पानि भरैत,की हमहुँ छी अंग एकर

भोट मांगे पोहला-पोहला कs,गदहो के बाप बना कs
जितैत देखु गिरगिट जेकाँ बदलैत रंग एकर

'मनु' छल कारिझाम चिन्हार बनोलन्हि अनचिन्हार
घरी-घरी में बदलैत देखु आब तs उमंग एकर
-- - - - - - - - -वर्ण-२० - - - - - - - - - - -
***जगदानंद झा 'मनु'

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

गजल



दर्द करेजक देखाएब तs अहाँ जानब की
हमर बात कनी सपनो में अहाँ मानब की

अहाँ कहलौं पुरुषक प्रेम गोबर आ रुई
करेज चीरो कs देखायब तs अहाँ कानब की

दोख एकेटा में होई छैक सबमे कत्तौ नहि
सबके संग हमरो अहाँ ओहि में सानब की

अहाँ कहैत छी सबठाम अन्हारे-अन्हारे छै
इजोरियाके आँखि मुनि अन्हरिया मानब की

एक बेर हमरो पर भरोसा कय कs देखु
प्रेम केकरा कहैत छैक 'मनु' सँ जानब की

(सरल  वार्णिक बहर, वर्ण-१७)
जगदानन्द झा 'मनु' : गजल संख्या-२१

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल---


फाटैत छल जतए मेघ आ जमीन
पहुँचल पहिने ओतहि अभागल

बुझनुक बुझए सियार अपनाकेँ
जा धरि छल टिकल नीलमे राँगल

फँसि गेल अपनेसँ व्यूहमे बेचारा
नै भेलै लाठी अपने ओकरा भाँजल

जत' शेर राज करै छल पहिनेसँ
बुधियार छल ओ पहिनेसँ माँजल

सियार जा क' पढ़ौलक मंत्र जखन
प्रजा शेरसँ छल पहिनेसँ साधल

आखर---14

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

गजल

प्रस्तुत अछि आशिष अनचिन्हार जीक देल गेल पाँती सँ बनल गजल ....
जल्दी टुटी गेलासँ दर्द नै होइ छै ,
जल्दी जुटी गेलासँ फर्द नै होइ छै ,
जिनगी मे जौँ और किछ नै केलक ,
रोटी आनि लेला सँ मर्द नै होइ छै ,
सौँसे देह उघारे छै कोनो बात नै ,
लुंगी पेन्हला सँ बेपर्द नै होइ छै ,
मौसम कतबो पलटी खाइ छैक ,
मनुष्यक हृदय सर्दनै होइ छै ,
दुनियाँ लेल अहाँ कतबो छी क्रुर ,
माँ के पुजलासँ बेदर्द नै होइ छै ,
माँग मे सेनुर नै माटि भरि दियौ ,
माटीयो पड़लासँ गर्द नै होइ छै . . . । ।
अमित मिश्र

गजल

‎कोना चमकल रूप सब बुझहS चाहै छै ,
अंग-अंग मे हम्मर गजल रहS चाहै छै
केशक गजरा जानि नै की सब करेतै यै,
मुस्की कए वाण पर इ दिल ढहS चाहै छै ,
पएरक पायल मोनक मोर नचाबै यै ,
डाँरक लचकी कए बिजुरी सहS चाहै छै ,
पाकल आम छी हरियर-पियर सुट मे ,
प्रेमक मथनी सँ प्रेम दही महS चाहै छै ,
राति अमावस मे पुनिम बनि कS एलौँ यै ,
चलि आउ मोर अंगना दिल कहS चाहै छै ,
परी बनि सपना मे सबहक अहाँ आबै छी ,
"अमित " तS सदिखन सुतले रहS चहै छै . . . । ।
अमित मिश्र

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल---



आजुक युगक कथा पुराण सुनू
जाहिसँ पेट भरए सएह गुनू

नै करू देखाँउसे दूइर समय
स्वंय कोनो समस्याक निदान चुनू

जँ लागल पसाही अनका घरमे
तकरा लेल अहाँ नै कपार धुनू

घर तँ बचाउ सदिखन अप्पन
मुदा तेँ दोसरा बेर नै आँखि मुनू

आखर—13

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

सरस जीक साकक्षात्कारक दोसर आ अंतिम भाग

गजल

जे किछ कहब हँसि क' कहू ,
प्रेमक जाल मे फँसि क' कहू ,
भिज जाउ सिनेहक वर्षा मे ,
दिलक झिल मे धँसि क' कहू ,
खसा दिअ आइ बिजुरी अहाँ ,
रूपक चानन घसि क' कहू ,
प्रेम केलौँ कोनो पाप त' नै ने ,
लग आबि क' हुलसि क' कहू ,
जमाना जुल्मी किछ नै करतै ,
डरू नै बाँहि मे कसि क' कहू ,
अन्हरिया कते दिन रहतै ,
देखू भोर भेलै हँसि क' कहू ,
बना लेब दुलहिन अप्पन ,
" अमित " कने खखसि क' कहू . . . । ।
अमित मिश्र

गजल


बाहरक शत्रु हारि गेल मुदा मोन एखनहुँ कारी अछि।
नांगरि नहि कटा कऽ मुडी कटबै कऽ हमर बेमारी अछि।

तेल सँ पोसने सींग रखै छी व्यर्थ कोना हम होबय देबै,
खुट्टा अपन गाडब ओतै जतऽ सभक सँझिया बाडी अछि।

पेट भरल अछि तैं खूब भेजा चलै ए, नै तऽ हम थोथ छी,
ढोलक कियो बजाबै, मस्त भेल बाजैत हमर थारी अछि।

जीतबा लेल ढेरी रण बाँचल, एखन कहाँ निचेन हम,
केहनो इ व्यूह होय, टूटबे करतै जँ पूरा तैयारी अछि।

डाह-घृणा केँ अहाँ कात करू, इ अस्त्र शस्त्र नै कमजोरी छै,
आउ सब ओहिठाम जतय रहै "ओम" प्रेम-पुजारी अछि।
सरल वार्णिक बहर वर्ण २२

गजल


कतय भेटत एहन प्रेम जे मीत अहाँ देलौं
मित्रताक कर्मपथ पर मोन जीत अहाँ लेलौं

स्वार्थक मीत जग समूचा,मोन मीत नहीं कियो
धन्य सौभाग्य हमर मोन मीत बनी अहाँ एलौं

स्वार्थक मेला में भोगलौं हम वर वर झमेला
हर झमेला में बनिक सहारा मीत अहाँ एलौं

मजधार डूबैत हमर जीवनक जीर्ण नाव
नावक पतवार बनी मलाह मीत अहाँ एलौं

निस्वार्थ भाव अहाँ मित्रताक नाता जोड़ी लेलहुं
हर नाता गोटा सं बड़का रिश्ता मीत अहाँ देलौं

नीरसल जिन्गीक हर क्षण भेल छल उदास
उदास जिन्गीक ठोर पर गीत मीत अहाँ देलौं

संगीतक ध्वनी सन निक लगैय मीतक प्रीत
कृष्ण सुदामाक प्रतिक बनी मीत अहाँ एलौं


...............वर्ण:-१८.....................
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल---


आब कविता आ गीत नै गजल चाही
अपहर्ता चाँगुरसँ सकुशल चाही

ठोरक मुस्की बनल रखबाक लेल
धन आ जन सभहँक सबल चाही

जहिया धरि रहत पेट खाली सन
गीत आ संगीत नै पेटक अमल चाही

कते आश करू हुनकर मड़ैयाक
आब अपन बनाओल महल चाही

तकनीकी रुपें भ' रहल छी सबल
तँए इ भ्रष्ट व्यवस्था बदलल चाही

आखर-----14

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

गजल


मधुर साँझक इ बाट तकैत कहुना कऽ जिनगी बीतैत रहल हमर।
पहिल निन्नक बनि कऽ सपना सदिखन इ आस टा टूटैत रहल हमर।

कछेरक नाव कोनो हमर हिस्सा मे कहाँ रहल कहियो कखनो,
सदिखन इ नाव जिनगीक अपने मँझधार मे डूबैत रहल हमर।

करेज हमर छलै झाँपल बरफ सँ, कियो कहाँ देखलक अंगोरा,
इ बासी रीत दुनियाक बुझि कऽ करेज नहुँ नहुँ सुनगैत रहल हमर।

रहै ए चान आकाश, कखनो उतरल कहाँ आंगन हमर देखू,
जखन देखलक छाहरि, चान मोन तँ ओकरे बूझैत रहल हमर।

अहाँ कहने छलौं जिनगीक निर्दय बाट मे संग रहब हमर यौ,
अहाँक गप हम बिसरलहुँ नहि, मोन रहि रहि ओ छूबैत रहल हमर।
मफाईलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ) - ५ बेर प्रत्येक पाँति मे।

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल......


कएल कोनो कुकृत्यसँ लोक नै आब ढ़ठाइए
वएह कुकर्मी सभ-सभ ठाम आब ठठाइए

लोक पबैए रोजगार तँ बुनैए नव समाज
जत' जा कमाइए ओतुके भ' आब सठिआइए

उघरल लोक सभकेँ छुट्टा भ' घुमैत देखब
मुदा झँपलाहा लोक सभ लाजे आब ढ़ठिआइए

नीक काज केनिहार सभ झँपले रहैत अछि
नीच काज केनिहारक झंडा आब उधिआइए

आखर---18

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल-----


बिगड़लो रुपकेँ नकल करैए आब लोक
नकलोकेँ यथार्थ संजोगि राखैए आब लोक

दायित्व बुझैए मात्र अपन स्वार्थपूर्ति लेल
अनकामे अपनाकेँ विलगा लैए आब लोक

धुँआधार हँकैए गप्प लोक कल्पनाकेँ भावेँ
यथार्थमे अपनाकेँ सुनगा लैए आब लोक

जीबनक दशा-दिशा तय करैए मात्र स्वंय
भाइ देखावामे स्यंवकेँ हेरा लैए आब लोक

देखू पहिनेसँ आरक्षित भ'केँ जिबैए सभ
मुदा बेर पड़ने देखार होइए आब लोक

स्तरसँ उपर जीबाक भ' गेलैए परिपाटी
पाइक फेरमे भ्रष्टाचारी भेलैए आब लोक

आखर---17

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

गजल


जरि-जरि झाम बनलहुँ हम
सोना नहि बनि पएलहुँ हम

कतेक अभागल हमर भाग
अपन सोभाग हरेलहुँ हम

अपन जीबन अपने लेलहुँ
किएक लगन लगेलहुँ हम

सुगँधा अहाँ के विरह में देखु
की की जरलाहा बनलहुँ हम

अहाँ विरह के माहुर पिबैत
मरनासन आब भेलहुँ हम

जतेक हमर मनोरथ छल
संगे सारा में ल अनलहुँ हम

मातल प्रेमक जडित आगि में
खकसिआह मनु भेलहुँ हम

(सरल  वार्णिक बहर, वर्ण -12) 
जगदानन्द  झा 'मनु'

गजल

‎जीवन मे जौँ नै रहबै कने सामने रहू ,
जा धरि चलै छै साँस हम्मर सामने रहू ,
केहनो हो मौसम फुल गमक नै छोड़ै छै ,
प्रेमक गाछ कए फुल छी गमकौने रहू ,
लोग कतबो दुषित करै छै पर्यावरण ,
सुर्य-चान उगबे करतै समझने रहू ,
जौँ हटि जायब प्रियतम अहाँ सामने सँ ,
हमरा संग सिनेह हारत , जीतौने रहू ,
ऐ वालेंटाइन देखा दियौ प्रेमक तागत ,
नभ सँ भू धरि प्रेम जाम छलकौने रहू
काँट इ जमाना छै सिनेह गुलाबक फुल ,
"अमित " नदी कए दुनू कात सम्हारने रहू . . . । ।
अमित मिश्र

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

गजल

प्रस्तुत अछि एहन गजल जे की ओमप्रकाश आ मिहिर झाक सहयोगसँ बनल अछि। ताड़ी आ छौंडी हमर प्रिय विषय अछि। तँए अधिकार सहित हिनकर लिखल शेर सभकेँ हम अपन कहि रहल छी। आशा अछि जे दूनू गोटेंकेँ खराप नै लगतन्हि।


जखन भरल गिलास भेटैए ताड़ीखानामे

भाइ हमरा स्वर्गे सन लगैए ताड़ीखानामे


लबनी छै भरल फेनसँ चिखना छै राखल

पीला पर मरलो मोन जिबैए ताड़ीखानामे


भेटत चकाचक मुदा नै छै निसाँ विदेशीमे

इ बात तँ सभ जोरसँ बजैए ताड़ीखानामे


निसाँ एकर बिसरा देलक सभटा झंझटि

आब हुनकर इयाद अबैए ताड़ीखानामे


हँसी ओकर ठोरक कीनि लेलकै पाइबला

चुपचाप बैसल दिन गनैए ताड़ीखानामे


भाइ जँ बाँटि-चूटि पीब तँ राजा घर जाएब

असगरें अपसुआर्थी पिबैए ताड़ीखानामे


सच तँ रहैए सदिखन छाती तानि ऐठाम

देखू फूसि तँ कोनटा पकड़ैए ताड़ीखानामे


अनचिन्हार नै जखन ओ बैसल एकठाम

लबनी देखि खुदा ओम कहैए ताड़ीखानामे


शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

गजल


चढल फागुन हमर मोन बड्ड मस्त भेल छै।
पिया बूझै किया नै संकेत केहन बकलेल छै।

रस सँ भरल ठोर हुनकर करै ए बेकल,
तइयो हम छी पियासल जिनगी लागै जेल छै।

कोयली मधुर गीत सुना दग्ध केलक करेज,
निर्मोही हमर प्रेम निवेदन केँ बूझै खेल छै।

मद चुबै आमक मज्जर सँ निशाँ चढै हमरा,
रोकू जुनि इ कहि जे नै हमर अहाँक मेल छै।

प्रेमक रंग अबीर सँ भरलौं हम पिचकारी,
छूटत नै इ रंग, ऐ मे करेजक रंग देल छै।
सरल वार्णिक बहर वर्ण १८
फागुनक अवसर पर विशेष प्रस्तुति।

गजल


गुमान जिनका पर छल ओ मुँह मोरि लेलैंह
दर्दक इनाम दय, खुसी सँ नाता जोरि लेलैंह

हमर दर्द कए आब ओ समझै छथि मखोल
छन में हँसि कय, हमरा सँ नाता तोरि लेलैंह

ओ की बुझता पियार केनाई ककरा कहैत छै
जए घरी-घरी में अपन करेज जोरि लेलैंह

पियारक फूल पर चलब आब ओ की सीखता
विरह के अंगार पर चलब जे छोरि लेलैंह

'मनु' नादान, नै हुनका मिसियो भरि चिन्हलहुँ
मोनक बात की, करेजो हमर ओ फोरि लेलैंह

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-18)
जगदानन्द झा 'मनु'

गज़ल



सोचै छी हम एकबेर बनि जैतिहौं जँ फेर सँ नेनाभुटका बच्चा
टहैलि आबितिहौं बाड़ि-झाड़ि, खादि-खन्नर, पोखरि, डाबर, चभच्चा

खेलैबतिहौं नरकैटक बन्दुक, बजैबितौं केरापातक पिपही,
घसि-घसि बनैबतिहौ सीटी-बाजा, उखारि ओंकरल आमक बिच्चा

उछैलितौं, फाँनितौं, घुमितिहौं घुमरि, खेलैबितिहौं करियाझुम्मरि
करितौं हो-हो, बनितौं मरूआक ढ़ेरी, उरैबितौं थालक फुरकुच्चा

चढ़ितिहौं जँ आम, लताम, जामुनक गाछ, झुलितिहौ डारिक झुल्ला
कुतैरतिहौं टिकुला आ फुल्ली-बाति फर, मारितिहौं कच्चा पर कच्चा

घिचितिहौं झोटा-चोटी,, घोलैटितौं भुइयाँ, कनितिहौ हकपुत्तर
साँझ-बाति जँ घुरि अबितिहौं अँगना, मारिते माय, बौसतिहै चच्चा

मनक सेहन्ता मुदा घुमरि-घुमरि रहि जाइ ये मोनेक भीतर
सभटा भs गेल आब ई दुःसपना, जेँ चढ़ल ई यौवन अधखिच्चा

"शांतिलक्ष्मी" शहर-गाम मे देखय बस एक्के रंगक रंगल छिछ्छा
छेटगर होइते पाछु पड़ि जाइ छै टोलक बूरल लफुआ लुच्चा

........वर्ण २५........



गजल


कोबी, टमाटर, भट्टा, ये लय आर जाय जैइबै मिरचाय ये
लहसुन हरदि उहो छै, ये सुनय आर जाय छियै माय ये

ये गिरहतनी लय जैइबै त बाजु सुभिते मे दै देब आइ
चिजो भेटत एकलम्बर, एक्को चिज नै भेटत अधलाय ये

कोबी टमाटर धानक तीन खुटे, भट्टा मिरचाय फाँटि कय
अल्लु चलु बरोबरि, मुदा हरदीक लागत नकत पाय ये

हे गिरहतनी फाs लत तै लइये लेबय की करी दाम कम
आढ़त जेइबै पता चलत कोना आगि फेकय मँहगाय ये

हे माय कटहर नै किनलियै ओतहे चालीस के रहै किल्लो
अहाँसीन सेहो एक-दुइ किनै पुज्जी कोना दितिहै फँसाय ये

"शांतिलक्ष्मी" सोचय काल्हि चाहा-चिड़ै जकाँ भल्हों होइ अलोपित
कुजरनीक बोली आइ गामक छिये बड़ अनुप मिठाय ये

.......वर्ण २३.........


गज़ल



मैरचीवाली कोना टुकटुक ताकै मनमोहना आँखि ओझरायल छै
झाँऊं झाँऊं करै ई कुकुर केर टोली मधुमासे जेना उमतायल छै

पश्चिमक हवा गामे-गाम सिहकै, जेहने बिहौतिन तेहने कुमारि
फ़िदाहुसैनक मौगी उकरल सभमे, हरियर मोन बौरायल छै

सनम-बलम कौआ कुड़रै, कठबगुला मोनहा मुँह मकुयेनै छै
उमर धुमर के खियाल छै ककरा, वय सट्ठो पट्ठा गरमायल छै

देवता-पितर के डरभर ककरा, बरत-धरमक के छै पामौज
बन्हन ऊपर पुलिस-कचहरी, रंगरसिया मोन उधियायल छै

खुल्लम-खुल्ला देखै मधुरसलीला, नैनमैतियो आँखि करै मधुपान
आठिम एखन चढ़तै वाकि नै चढ़तै, काँचे वयस पकठायल छै

बेटी पुतोह आब नै घरो सुरक्षित, शहरी बात सदि करै चेतार
सतित्वक रक्षा कोना हेतै हौ विधाता ’शांतिलक्ष्मी’क मोन डेरायल छै

............वर्ण २६........

गज़ल


पेट मे भल खड़ नै हिनका मुदा सिंघ मे तेल छै
माय कहै बौआ हमर नुनुआगर, बुरलेल छै

जीटजाट फ़ीटफ़ाट, मारय सीटल बिछान सन
मारल कंघी लटुरिया जुल्फ़ मे गमकै फुलेल छै

जेहने चढ़ल पंथ बौआ तेहने होइन्ह संगति
तीन खेप मैटरिक फेल दोस, फेलो मे फलेल छै

लभ लिखल फ़ोनटेन लभे उकारल कुंजी-झावा
लभ घसल तरहैत तँ कामदेवक गुलेल छै

तीर तरकस सँ लैस बोआ चलला शिकार पर
कान्ह पर हाथ देनय संगबै भजारी टंडेल छै

अंगना घरक नुनुआ छथि सड़क पर उचक्का
भरल चालि ढ़ालि मे अवरपनीक अटखेल छै

"शांतिलक्ष्मी" देखय छत पर षोडषीक काकचेष्ट
बाट ठाढ़ बौआक आंखि मे बकोध्यानक झमेल छै

.........वर्ण १९........

गज़ल


अपने पुरखाक मानदानक जड़ि कोड़य मे सभ लागल छै
कियो ककरो कहै घताह कियो ककरो कहै निटट पागल छै

बाँसक बंश केँ उकनै बाँसे देखू कुढ़ैड़क पोन मे छै पैसल
फ़ाटैत मानक चद्दरि केँ सिबै सुईक पोन कियै नै तागल छै

अपने लोकक टाँग घिचैत बेंग केर बनल सभकियो खिस्सा
माय सुमैथिलीक करमे बुझाइत आइ भs गेल अभागल छै

बरदक कान्हक पालो जनु बुझाइत धीयापुता केँ बड़ भारी
छुट्टा खाइत बौआइत एनाहैत जेना अड़िया बछ्छा दागल छै

अपन लोकवेद केँ आगु करय आइ जखन दुनियाँ चेतल
हमसभ निभेर भेल तैयो सुतल, कहु के कतय जागल छै

अहंकारक धाह तापैत मैथिल जनगण छथि अगरमस्त
समाजक एहन विचित्र स्वभाव सेँ "शांतिलक्ष्मी"यो नै बागल छै

..........वर्ण २४........

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल--


जे चुबै छै ठोर-आँखिसँ ओकरा ताड़ी बुझू
जँ पीतै केओ संसारमे तँ बरबादी बुझू

आब तँ एहने बिआहक परिपाटी बुझू
लिव-इन-रिलेशन वाली घरवाली बुझू

भाइ जेबीमे घुसल हाथक की महत्व छै
तालसँ ताल मिलए तँ ओकरा ताली बुझू

निराशा संग आशापर टिकल छै दुनियाँ
जँ देखलहुँ भगजोगनी तँ दिवाली बुझू

बहुतों अछि संसाधन देश-परदेशमे
मुन्ना अछि निकम्मा तँ ओकरा मवाली बुझू

आखर-----16

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

गजल

चाँन देखलौ त' सितारा की देखब ,
अन्हारक रूप दोबारा की देखब ,
प्रेमक सागर मे बड़ मोन लागै ,
डुबS चाहै छी त' किनारा की देखब ,
एहि ठामक मिठाई सँ बेसी मिठ ,
रूपक छाली दोबारा की देखब ,
अपने आप राति रंगीन भ' जाए ,
फेर बोतलक ईशारा की देखब ,
मेघक डरे चान नै बहरायल ,
ओ नै औता त' नजारा की देखब ,
जखन यादिक सहारे जी सकै छी ,
तखन चानक सहारा की देखब . . . । ।
अमित मिश्र

गजल,

चढ़लै फगुआ सुनि लिअ ,
मस्ती चढ़ल छै जानि लिअ ,
जोगीरा संग झुमै जाउ यौ ,
मौसम सँ खुशी छानि लिअ ,
रोक-टोक नै सब पिने छै ,
झुमु-नाचु छाती तानि लिअ ,
लाल पियर गुलाबी कारी ,
सब रंगक गड्ढा खुनि लिअ ,
अबिरक खुशबू गमकै ,
रंगक चादर तानि लिअ ,
रामा छै सासुर मे बैसल ,
सारि कने रंग मानि लिअ ,
अबिर द' क' गोर लागै छी ,
माथ हम्मर ,हाथ आनि लिअ . . . । ।
अमित मिश्र

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल---



ई दौड़ए नेतबा दिल्ली धरि
जेना भैंसी दौड़ै मालक थरि

खाँहिस तँ भरब जेबी छै
दूनू छोड़ए ने कोनो कसरि

बीत नापि क' हाथ गनाबए
छै एकल नापिक नै असरि

भरल पंचैती माथ झुकाबै
ई जान बचाबै कोना ससरि

बाँटै धरमकेँ दुनू मीलि क'
कूटि-चालि तँ जाइछ घोसरि

आखर---11

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

गजल


धूप आरती हम अनलहुँ नहि 
जप-तप करब सिखलहुँ नहि 

सदिखन कर्तव्यक बोझ उठोने
अहाँक ध्यान किछु धरलहुँ नहि 

की होइत अछि माए पुत्रक नाता
एखन तक हम बुझलहुँ नहि

हम बिसरलहुँ अहाँकेँ जननी 
अहुँ एखन तक सुनलहुँ नहि

अपन शरणमे लऽ लिअ हे माता
ममता अहाँक तँ जनलहुँ नहि

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-१३ )

जगदानन्द झा 'मनु' 

गजल



अहाँ सं हम प्रगाढ़ प्रेम करैत छि
अहाँ किएक इ अपराध बुझैत छि
जिन्गी अछि हमर अहींक नाम धनी
हमरा किएक बदनाम बुझैत छि
हमर आँखी अहांके दुलार करैय
नैन किएक हमरा सं झुकबैत छि
अछि मोनक मिलन प्रेमक संगम
अहाँ किएक प्रेम इन्कार करैत छि
हम छोड़ी देलहुं सब काज सजनी
बस अहींक नाम लिखैत रहैत छि
बिसारि देलहुं हम अलाह ईश्वर
प्रेम केर हम इबादत करैत छि
प्रेम छै पूजा,छै प्रेम सच्चा समर्पण
अहिं कें हम अपन जिन्गी बुझैत छि
................वर्ण -१४...................
रचनाकार :-प्रभात राय भट्ट

गजल

प्रस्तुत अछि मुन्ना जीक गजल---



नेताक फाँसमे फँसल ई भारत भाए-भैय्यारी जकाँ

देखू छटपटा रहल माछ भरल अपियारी जकाँ


लोक तँ कटैए घिसिऔर महँगाइसँ मारल भ' '

भावे मुदित मुदा स्वर निकलैछ फकसियारी जकाँ


आर्थिक उदारीकरण कमाइ आब लाखमे होइछ

मुदा वैश्विक परिस्थितिमे मोल लागए हजारी जकाँ


बिहारक सिरखारी बदलि गेल सन लगैए आब

श्रमिक घटलासँ कंपनी-मालिक लगै बिहारी जकाँ


आइ धिया-पुता घुमैए प्रशिक्षित बेरोजगार भ' '

महँगाइमे आंशिक लाभ पाबि बुझैए दिहाड़ी जकाँ


आखर---20


मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

गजल

किछओ लीखु s साथी एहन की, रहि रहि s लाइक करत
फेक आईडी नीक फोटो, कमेन्ट करय लेल माइर करत

चैटिङ फेटिङ डेटिङ सेटिङ के परोगराम बात सुनू
जहाँ कमेन्ट पर चुप्पी साधु, मुँह बिचकौने माइन्ड करत

हमहूँ कम नै गच्चा दै मे, पुछलहूँ बियाह करबै की अहाँ
बिन दहेज जखने कहलहूँ की, लङ्क लागि भागि पडत

उमेद पिता के, माय के आशा, कोना कय सभ पुरा करतै
फिटफाट जिटजाट खाली मस्ती, कहुना s s बाईक चढत

देश-दुनियाँ, जिबन-दर्शन के, लियौ ने एकरा s बात कते
समाज' समस्या मे साथ माँगु, s धीरे धीरे साईड धरत

आस' घूर मिझारहल, अखनो किछ चिनगी जेना बाँकी छै
पजरै धधरा कहुना s "स्वाती", जे जाड राइत कटत !!
तोहर मतलब प्रेम प्रेमक मतलब जीवन आ जीवनक मतलब तों